कजरी तीज पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रमुख त्योहार है। भले आज इसका विस्तार अन्य क्षेत्रों तक पहुंच गया हो किन्तु वास्तव मे इसकी उत्पत्ति कभी पूर्वी उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले मे हुई थी।
कजरी पर्व को लेकर अनेक कथाएं प्रचलित है जिसमें राजा रानी के वियोग प्रेम से लेकर अनेक किस्से बताये जाते है लेकिन हिन्दु धर्म मे किसी धार्मिक पर्व को केवल इसलिए नहीं मनाया जाता है कि वह किसी राजा या रानी की विरह वियोग पर आधारित है बल्कि उसके पीछे दैवीय शक्ति का प्राकट्य होना आवश्यक है।
यदि कजरी शब्द का भावार्थ निकाला जाये तो यह काले रंग का द्योतक है जैसे श्यामल गाय का नाम लोग कजरी रख देते है उसी प्रकार देवी काली का नाम उनके रंग के आधार पर पड़ा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कजरी पर्व कहीं ना कहीं आदि शक्ति काली से जुडा़ हुआ है ।
चूंकि इस पर्व का उत्पत्ति क्षेत्र जिला मिर्जापुर है जो देवी काली का एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। पौराणिक मान्यता के अनुसार वसुदेव नवजात कृष्ण को गोकुल पहुंचाकर यशोदा की प्रथम सन्तान जो कन्या पैदा हुई थी उसे लाकर कंस को सौंप दिया नारद के बहकावे मे आकर कंस ने उसेे मारने का प्रयास किया जो उसके हाथ से छूटकर कर अदृश्य हो गई और देवी का रुप धर भविष्य वाणी की कि कंस को मारने वाला पैदा हो चुका है उसके बाद वह शक्ति वहां से चलकर मिर्जापुर के निकट चुनारगढ़ की पहाडी के एक खोह मे कुछ मास विश्राम करने के पश्चात मिर्जापुर मे शाश्वत रुप से निवास करने लगी जिसे लोग भीमचण्डी काली के नाम से जानते है। वास्तव मे परोक्ष रुप से कजरी पर्व भीमचण्डी का ही पर्व है जिसे देवी पार्वती का स्वरूप मानकर स्त्रियां अपने परिवार तथा पति की मंगलकामना हेतु प्राचीन समय से मनाती चली आ रही है। देवी की प्रसन्नता हेतु इस क्षेत्र मे महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला भक्ति गीत कजरी गीत के रुप मे विख्यात हुआ।
कजरी पर्व प्रति वर्ष भादो कृष्ण पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इस वर्ष कजरी पर्व 6 अगस्त 2020 को पड़ रहा है।